कोरोना महामारी का भारतीय प्रिंट न्यूज़ मीडिया पर प्रभाव

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कोरोना महामारी का  भारतीय प्रिंट न्यूज़ मीडिया पर प्रभाव
डॉ० मिथिलेश कुमार चौबे
editorjrr@gmail.com 

भारत में करोड़ो लोगों के लिए  अखबार पढ़ना  रोजमर्रा की जिन्दगी का एक  महत्वपूर्ण हिस्सा  है. दरअसल कई लोगों के लिए  ताजे  अकबार के पन्ने में रची-बसी प्रिंटिग की तेजाबी गंध दिन की शुरुआत कराती है. भारत में अखबार के शौकीनों की संख्या करीब 20करोड़ होगी.  इसमें, दुकानों, सलूनों तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर मांग कर अखबार पढने वालों की संख्या शामिल नहीं है.
लेकिन कुछ सालो से अख़बारों की दुनिया में पतझड़ का मौसम का आया हुआ है. टीवी के बाद इन्टरनेट ने अख़बारों को गंभीर चुनौती दी है. लेकिन इन माध्यमों के बीच भी अखबार अपनी विस्वसनीयता की  ताल ठोकते रहे हैं.  अखबार आज भी खबरों की विश्वसनीयता और क्रॉस रिफरेन्स के लिए सबसे अधिक विश्वसनीय माध्यम है.
लेंकिन कोरना  वायरस के संकट के दौरान अख़बारों के माध्यम से वायरस फैलने की अफवाह ने अखबार के व्यवसाय पर गहरी चोट दी है. इससे पहले इस महामारी के दौरान अभूतपूर्व आर्थिक गतिरोध की वजह से लगी है.                                       
इन दो आधातों ने पूरेप्रिंट मध्यम को घुटने पर ला खड़ा किया है. दरअसल पूरा का पूरा प्रिंट मीडिया पिछले दो सालों से आर्थिक मंदी का शिकार है. पिछले साल मीडिया बैरन सुभाष चंद्रा द्वारा संचालित अंग्रेजी दैनिक डीएनए ने पिछले साल अपनी कंपनी एस्सेल ग्रुप के वित्तीय संकट में पड़ने के बाद छपाई बंद कर दी थी। केरल और बेंगलुरु के लिए डेक्कन क्रॉनिकल संस्करण, और मुंबई और कोलकाता में एशियाई युग के संस्करणों को भी पिछले साल अचानक बंद कर दिया गया था। झारखण्ड  से टेलीग्राफ का प्रकाशन बंद कर दिया गया है

अखबारों और पत्रिकाओं के प्रचलन में विज्ञापनों का बहुत बड़ा योगदान होता है. आर्थिक गतिविधियों के कमजोर  पड़ने के कारण विज्ञापनों की सख्या में लगातार कमी आ रही है.           अब मीडिया घरानों ने अपने लागत  में कमी लाने के लिए पेजों की संख्या में कमी करने, प्रिंटिंग को ले-ऑफ करने, कर्मचारियों के वेतन में कटौती और कर्मचारियों की छटनी  का काम शुरू कर दिया है इस संकट ने आनंद बाजार पत्रिका ग्रुप, द टाइम्स ग्रुप, इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप, हिंदुस्तान टाइम्स मीडिया लिमिटेड, बिजनेस स्टैंडर्ड लिमिटेड और क्विंटिलियन मीडिया प्राइवेट लिमिटेड  जैसे शीर्ष खिलाड़ियों तथा प्रभात खबर, रांची एक्सप्रेस, जैसे क्षेत्रीय अख़बारों को भी प्रवावित किया है
टाइम्स ऑफ इंडिया, द इकोनॉमिक टाइम्स और नवभारत टाइम्स नें कर्मचारियों के वेतन में १ अप्रैल से ५-१० प्रतिशत तक कटौती करने का निर्णय लिया हैं. ख़बरों के अनुसार टीवी समाचार चैनल एनडीटीवी ने भी 1 अप्रैल से 10 से 40 प्रतिशत के बीच वेतन कटौती की घोषणा की। यह  कटौती 50,000 रुपये से अधिक आय वाले कर्मचारियों के लिए वेतन कटौती लागू है. तथा यह तीन महीने के लिए है.


आउटलुक पत्रिका का प्रकाशन तत्काल प्रभाव से रोक दिया गया है. बिजनेश वेबसाइट BQ ने भी अपना टेलीविजन डिवीजन बंद कर दिया है.  द क्विंट ने अपने ४५ कर्मचारियों को फरलो यानि बिना वेतन के अनिश्चित कालीन अवकाश पर भेज दिया है.
दरअसल, भारत का  खबरिया उद्योग पूरी तरह से सरकारी और गैर-सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर है. लेकिन अब  एक ऐसे माडल की जरुरत है जिसमें उपयोगकर्ता भुगतान करे. इसमें अख़बारों को स्वतंत्रकता भी बनी रहेगी और वे  बाजार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित भी नहीं होंगे. दूसरे शब्दों में, प्रिंट मीडिया उद्योग को राजस्व के लिए विज्ञापनों पर अत्यधिक आत्मनिर्भरता को कम करना होगा और "उपयोगकर्ता-भुगतान " मॉडल बनाना होगा ।

खबर है कि भारतीय समाचार पत्र सोसाइटी (INS) ने अखबारी कागज पर 5 प्रतिशत सीमा शुल्क हटाने के लिए I & B मंत्रालय से अपील किया है। भारत के सभी छोटे और बड़े अखबार  लागत को कम से कम करने के लिए लागत में कटौती के कई उपाय किए जा रहे हैं।

रजिस्ट्रार (आरएनआई) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में  31 मार्च 2018 को पंजीकृत प्रकाशनों की कुल संख्या 1,18,239 थी। इसमें 17,573 समाचार पत्र और 1,00,666 पत्रिकायें शामिल थे। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में  में 900 से अधिक टेलीविजन चैनल हैं, जिनमें से लगभग आधे समाचारों के लिए समर्पित हैं।

महामारी के दौर में अफवाहें अद्भुत रूप से ताकतवर हो जाती है. समाचार पत्रों के माध्यम से फैलने वाले कोरोनोवायरस के बारे में मिथकों और व्यामोह ने महानगरों में रहने वाले उच्च माध्यम वर्ग को भयभीत कर  दिया है. अन्य  बड़े शहरों में भी कमोबेस यही हाल है. जमशेदपुर जैसे शहरों में बड़े अख़बारों के पन्ने घट कर आधे रह गए है. इसमें प्रभात खबर, हिंदुस्तान,दैनिक भास्कर और दानिक जागरण जैसे अखबार शामिल हैं.

खबर है कि दो अंग्रेजी दैनिकों - द इंडियन एक्सप्रेस और द बिजनेस स्टैंडर्ड ने भी वेतन कटौती की घोषणा की है। हिंदुस्तान टाइम्स ने अपने कर्मचारियों के वेतन घटक में परिवर्तनशील घटक को निश्चित वेतन का प्रतिशत बदलकर किया है, जो कंपनी के प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है।

पुणे स्थित सकाल मीडिया समूह ने पिछले महीने अपने साकल टाइम्स की संपादकीय टीम के 15 कर्मचारियों को  नौकरी छोड़ने के लिए कहा। मुंबई से प्रकाशित होने वाले हिंदी अखबार हमारा महानगर ने मुंबई, पुणे और नासिक से तीन संस्करणों को बंद कर दिया है। मैसूरु से प्रकाशित 43 साल पुराने  इवनिंग मैसूर के अंग्रेजी दैनिक ‘स्टार’ ने 13 अप्रैल से प्रकाशन बंद कर दिया है।

लेकिन इसमें थोड़ी राहत की बात यह है कि छोटे शहरों में अखबारों के नियमित ग्राहकों की संख्या में ज्यादा कमी नहीं आई. किन्तु खुदरा बिकने वाले अखबार की संख्या बहुत कम हो गई.  लेकिन  वितरण में कमी नहीं होने के बाद भी विज्ञापन में  जबरदस्त कमी आई है. फलस्वरूप,  लोकल अखबार, कम पन्ने छाप कर,  लागत नियंत्रित कर रहे हैं.

Lockdown का असर  फ्री लांसर फोटोग्राफरों और स्वतंत्र पत्रकारों पर बेहद बुरा पड़ा है. कई तो भुखमरी के हालात से गुजर रहे हैं.

प्रिंट मिडिया के अलावा ऑनलाइन न्यूज़ मीडिया भी आर्थिक संकट से जूझ रहा है. नोएडा स्थित एक हिंदी समाचार चैनल द क्विंट, न्यूज नेशन नेटवर्क ने वित्तीय संकट का हवाला देते हुए पूरी अंग्रेजी डिजिटल टीम को ही बर्खास्त कर दिया है.                  

द क्विंट जैसे ही हालात कमोबेश सभी बड़े ऑनलाइन न्यूज़ चैनल्स के हैं. लॉक डाउन के दौरान जब बाजार पूरी तरह बंद था तो विज्ञापन देने का कोई उदेश्य ही नहीं बचा था. फिलहाल ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के लिए कुछ विज्ञापन है. लेकिन  असली पैसा तो luxary उत्पादों के विज्ञापन से आता है. ग्राहक फिलहाल चावल और दाल खरीद रहा है.

Lockdown के दौरान  मासिक पत्रिकाओं का प्रकाशन  पूरी तरह बंद हो गया है. लॉकडाउन के दौरान पत्रिका वितरित करना संभव नहीं है, इसलिए प्रिंट संस्करण लाने का कोई उधेश्य नहीं बचता. दरअसल, मीडिया हाउस निकट  भविष्य को लेकर बहुत आशावादी नहीं हैं. वे निराशा में अपने लागत को कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी और उनके वेतन में कटौती कर रहे हैं.

टीवी न्यूज़ मीडिया की अलग समस्या है. BARC-Nielsen की रिपोर्ट के अनुसार, हालांकि दर्शकों की संख्या में तेजी देखी गई है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप विज्ञापनों में वृद्धि नहीं हुई है। फिलहाल टीवी न्यूज़ मीडिया पर 18 प्रतिशत GST लगाया जाता है. न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन इसे कम करने की की मांग कर रहा है. इसमें एक दिलचस्प बात यह है कि डिजिटल और विडियो पोर्टल्स पर भारी ट्रैफिक दर्ज की गई है. लेकिन, ये चैनल भी पूरी तरह से विज्ञापन राजस्व पर ही निर्भर हैं.

इधर "सरकार ने अख़बार उद्योग के अनुरोध पर अखबारी कागज पर 10 प्रतिशत सीमा शुल्क घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया है। लेकिन दूसरा तथ्य यह भी है कि पिछले साल से सरकारी विज्ञापनों में भारी गिरावट आई है, विशेषकर सरकारी परियोजनाओं के उद्घाटन की घोषणा करने वाले विज्ञापनों की संख्या में में काफी कमी आई है. इसने छोटे और मध्यम स्तर के समाचार पत्रों को विशेष रूप से प्रभावित किया है, क्योंकि बड़े अखबारों में अभी भी आय के अन्य स्रोत हैं।"

न्यूज़ उद्योग की परेशानी तब तक बनी रहेगी  जब तक कि वह  विज्ञापन राजस्व पर अपनी निर्भरता को कम नहीं करेगा. "उपयोगकर्ता-भुगतान के सिद्धांत को मीडिया उद्योग के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत बनना चाहिए, अगर इसे आर्थिक मंदी से बचना है.इस परिस्थिति में यह सिधांत कि user-must-pay, को ब्रहमवाक्य बनाने की जरुरत है.



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