पुस्तक समीक्षा- सन अस्सी ( San Assee) ISBN 978-93-5267-586-9- समीक्षक- मनीष सिंह 'बंदन'

शीर्षक- सन अस्सी श्रेणी-उपन्यास पेपर बैक तथा इ बुक( kindle लेखक- डॉ मिथिलेश कुमार चौबे ( ISBN-978-93-5267-586-9 मुद्रण एवं प्रकाशन- ज्ञानज्योति एजुकेशन एंड रिसर्च फाउंडेशन, जमशेदपुर, झारखण्ड, समीक्षक: मनीष सिंह 'बंदन' संपर्क-7549011112 उपलब्धता : आमेजन kindle
श्री राजमंगल पाण्डे सर के सौजन्य से कल मैंने एक नई पुस्तक का पाठन किया । सन् अस्सी । जी हां, यही नाम है इस दिलचस्प लघु उपन्यास का । इसे महज एक पुस्तक कह देना जरा बेमानी हो जाएगा । यह किताब किसी की भी निजी डायरी सी प्रतीत होती है, जहां जमशेदपुर के ८० के दशक के दौरान जवान हुए लोगों के तमाम चाहे-अनचाहे घटनाक्रमों और परिवेश के भीतर झांकने का काम किया गया है. इस लिहाज से पुस्तक का नाम सही प्रतीत होता है । लेखक के अनुभवों की इस गुल्लक में चंद सिक्के आपको बिल्कुल जाने-पहचाने से लगेंगे । यहां जीवन के कई शेड्स देखने को मिलेंगे जो आपके दिलो-दिमाग़ पर कई रंगों के छाप छोड़ जायेंगे । तनिक जमशेदपुरिया तरीके से कहूं तो ये करारी मिर्ची है नींबू और मसाला मार के ।। कहानी का प्लॉट, मुख्य पात्र(निशिकांत) और उसकी चार पीढ़ियों के बकौल दर्शाया गया है । सरल और सहज भाषा शैली, कथानक की धरती पर खूब फलते-फूलते हैं और पाठक को बाध्य करते हैं कि वो आखरी घूंट तक वहीं जमा रहे । तमाम पात्रों का चित्रण इतना व्यावहारिक है मानो आपको छूकर गुजरते हों । इस किताब के रचनाकार डॉ मिथिलेश कुमार चौबे जी हैं मगर ये कहीं से भी आपको आपसे दूर नहीं ले जाती हुई दिखेगी । यही इस किताब की यूएसपी है ।। इसी उपन्यास से उद्धृत :- "ढूंढ लो खुद को इस अफसाने में, इस किस्से का एक हिस्सा तुम्हारा भी है..." आम जन के बीच का बिंदास संवाद हो, बहु आयामी मानसिक द्वंद हो या शहर का बदलता ढंग हो, सब कुछ मिलेगा यहां एक जगह । कहानी की शुरुआत बड़ी ही सधी हुई है । बीच-बीच में वैसे बिखरती भी है मगर लेखक के शब्द कौशल से फिर पटरी पर चली आती है । बिहार और यूपी पूर्वांचल के परिवारिक लोगों के लिए ये किताब उनके पुर्वजों की याद दिलाती हुई सी भी लगेगी ।। जमशेदपुर के वैसे लोग जिनके चेहरे पे मूछों की हल्की रेखा उभरी थी ८० के दशक में उन सबके मनोदशा को दर्शाती, सामाजिक, आर्थिक और व्यापारिक परिदृश्य को अपने पारदर्शी पन्नों में समेटती, बिल्कुल अपनी सी लगती एक मनोरंजक और सजीव किताब है । रोमांच आखिर तक बना रहता है । वैसे ४-५ पन्ने और लंबी होती किताब तो कहानी और भी निखरती । कुछेक पात्रों को और स्पेस मिलना चाहिए था । एक लेवल की प्रूफ रीडिंग की जरूरत भी दिखी । साथ ही अनुक्रमणिका की अनुपस्थिति बेहद खली ।। मेरा सुझाव है कि जो भी इस शहर में करीब ४५-५० सालों से रह रहे हैं उनको इसे जरूर पढ़ना चाहिए । मेरा दावा है उनको बोरियत महसूस नहीं होगी और किताब के किसी ना किसी पात्र से स्वतः ही जुड़ाव भी महसूस हो जाएगा । भात की लुगदी से तैयार मांझे की डोर से ज़िन्दगी की पतंग कभी इस मुंडेर तो कभी उस मुंडेर होती हुई आखिरकार चिंतन के धरातल पर आकर उतरती है एक बेहतरीन संदेश के साथ.... "आप धीरे धीरे मरने लगते हैं, अगर आप नहीं देते हो इजाजत खुद को, अपनी संस्कृति की सूखती जड़ों में, अंजुरी भर जल डालने की...!!" कुल मिलाकर १० में से इस किताब को ७.५ नंबर देने में मुझे कोई गुरेज नहीं है और यह तर्कसंगत भी होगा । किताब Amozon पर भी उपलब्ध है ।। यह उपन्यास kindle पर भी उपलब्ध है. kindle- href="https://www.amazon.in/dp/B08537BVXL/ref=rdr_kindle_ext_tmb">

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