डॉ. मिथिलेश चौबे के तीन प्रमुख उपन्यासों—‘सन अस्सी’, ‘पिंगाक्ष’ और ‘कोल्हानम’में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विमर्श: एक आलोचनात्मक मूल्यांकन
Visit us at : www. jamshedpurresearchreview.com
परिचय
डॉ. मिथिलेश चौबे समकालीन हिंदी साहित्य में एक सशक्त कथाकार के रूप में उभरे हैं, जिनकी रचनाएँ झारखण्ड में , इतिहास, संस्कृति और मानव मनोविज्ञान के जटिल पक्षों को रचनात्मक संवेदना के साथ उकेरती हैं। उनके तीन प्रमुख उपन्यास—‘सन अस्सी’, ‘पिंगाक्ष’ और ‘कोल्हानम’—न केवल अलग-अलग समय, स्थान और सामाजिक यथार्थ का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि समकालीन हिंदी कथा-साहित्य को एक वैचारिक गहराई भी प्रदान करते हैं। नीचे भारतीय साहित्य में ऐतिहासिक उपन्यासों की एक समृद्ध परंपरा रही है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री, जयशंकर प्रसाद, वृंदावनलाल वर्मा जैसे साहित्यकारों ने भारतीय अतीत को पुनराख्यायित करते हुए उसे साहित्यिक स्वरूप प्रदान किया। इसी परंपरा में एक विशिष्ट और स्वतंत्र स्थान अर्जित किया है डॉ. मिथिलेश चौबे ने, जिनके उपन्यास भारतीय इतिहास के उन अध्यायों को सामने लाते हैं जो प्रायः इतिहासकारों की दृष्टि से ओझल रहे हैं। प्रस्तुत लेख में उनके प्रमुख उपन्यासों—‘सन अस्सी’, ‘कोल्हानम’ और ‘पिंगाक्ष’—का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए उनके लेखन की विशेषताओं और सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्शों पर चर्चा की गई है।
डॉ. मिथिलेश चौबे भारतीय ऐतिहासिक उपन्यासों की परंपरा में एक नवीन धारा का संचार करते हैं। उनके उपन्यास केवल ऐतिहासिक घटनाओं का पुनरावलोकन नहीं हैं, बल्कि वे इतिहास, संस्कृति, धर्म और समाज के मध्य बहसों और अंतःसंवादों का गहन विमर्श प्रस्तुत करते हैं। उनके उपन्यास पाठक को केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि आत्मचिंतन, अध्ययन और सांस्कृतिक पुनराविष्कार की दिशा में प्रेरित करते हैं। ‘सन अस्सी’, ‘कोल्हानम’ और ‘पिंगाक्ष’—तीनों उपन्यास समकालीन भारतीय साहित्य में न केवल पठनीय हैं, बल्कि शिक्षाप्रद और विमर्शशील भी हैं।
डॉ. मिथिलेश चौबे की रचनाएं भारत के बौद्धिक परिदृश्य में एक नवीन सांस्कृतिक चेतना का संचार करती हैं। वे अपने साहित्य के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि भारत की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विविधता को समझना, स्वीकार करना और सहेजना हर भारतीय की जिम्मेदारी है। उनके उपन्यास इतिहास के दस्तावेज भी हैं और सांस्कृतिक घोषणापत्र भी। ऐसे लेखन की आज के समय में न केवल आवश्यकता है, बल्कि यह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता के पुनर्निर्माण का भी माध्यम बन सकते हैं।
लेखन शैली और दृष्टिकोण
डॉ. मिथिलेश चौबे की लेखनी की सबसे बड़ी विशेषता उनकी शोधपरक दृष्टि है। वे किसी ऐतिहासिक घटना या तथ्य को मात्र विवरण के रूप में प्रस्तुत नहीं करते, बल्कि उसे जीवन्त चरित्रों और समसामयिक विमर्शों के माध्यम से पाठक के सामने लाते हैं। उनकी शैली अत्यंत प्रवाहपूर्ण, सिनेमाई और संवाद-प्रधान होती है, जो पाठकों को उपन्यास के घटनाक्रम से आत्मसात कर देती है। यह गुण उन्हें आमतौर पर जटिल और सैद्धांतिक भाषा में लिखे जाने वाले ऐतिहासिक उपन्यासों से अलग करता है।
‘सन अस्सी’: औद्योगिक भारत का सांस्कृतिक चित्रण
‘सन अस्सी’ उपन्यास जमशेदपुर के 1980-90 के दशक के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश को अत्यंत प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है। इसमें औद्योगीकरण के प्रभाव, ग्रामीण-शहरी माइग्रेशन, सांस्कृतिक अस्मिता और कामगार वर्ग की संवेदनाओं को आत्मीयता के साथ चित्रित किया गया है। यह उपन्यास एक ओर जहां क्षेत्रीय इतिहास को राष्ट्रीय विमर्श से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति की स्मृति और अनुभव को ऐतिहासिक दस्तावेज की तरह प्रस्तुत करता है।
यह समीक्षा डॉ. मिथिलेश चौबे द्वारा लिखित उपन्यास “सन अस्सी” पर आधारित है, जैसा कि Jamshedpur Research Review ब्लॉग में December 3, 2021 को प्रकाशित एक आलेख में उल्लेखित है ihds.umd.edu+8jamshedpurresearchreview.blogspot.com+8jamshedpurresearchreview.blogspot.com+8।
उपन्यास का सिंहावलोकन
• सेटिंग और टाइमलाइन
उपन्यास 1980 के दशक के जमशेदपुर (तत्कालीन बिहार) का एक "अनुप्रस्थ चित्र" (cross sectional picture) प्रस्तुत करता है—जिस तरह ऐप्टिकल खंडों में ऊतकों की आंतरिक संरचना झलकती है, वैसे ही उपन्यास इस दशक के सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन मे एक गहरा अंतर्दृष्टि प्रदान करता है jamshedpurresearchreview.blogspot.com।
• बहु-आंचलिक पृष्ठभूमि
यह उपन्यास विभिन्न प्रदेशों से आए लोगों के बीच के बहुसांस्कृतिक समागम को उजागर करता है। टाटा नगर की तेजी से बढ़ती जनसंख्या, रोजगार, जातीय विविधता, और सामाजिक गतिशीलता की कहानी में उदाहरणीय ढंग से बुनी गई है ।
________________________________________
लेखनशैली और शोध आधारित दृष्टिकोण
• शोध-प्रधान ऐतिहासिक दृष्टिकोण
उपन्यास के लेखक की सबसे बड़ी खासियत इसके शोध आधारित निष्कर्षों को कथा में कुशलतापूर्वक समाहित करना है। यह शैली पाठकों को रोचक ढंग से इतिहास की अनदेखी परतों से परिचित कराती है jamshedpurresearchreview.blogspot.com+1jamshedpurresearchreview.blogspot.com+1।
• आकर्षक और पठनीय
लेखक की शैली न केवल सूचना से भरपूर है, बल्कि भाषा सरस और प्रस्तुति दिलचस्प भी है, जिससे उपन्यास में निरंतरता बनी रहती है और पाठक अंत तक बंधा रहता है ।
________________________________________
महत्व और सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान
• स्थानीय इतिहास का उद्घाटन
इस उपन्यास से उन घटनाओं और परिवर्तनों पर प्रकाश पड़ता है, जिन्हें पारंपरिक इतिहास नहीं देख पाता—शहर की जनसंख्या विविधता, औद्योगिक विकास, और सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों का स्थानीय परिप्रेक्ष्य ।
• एक दशक का दस्तावेज
“सन अस्सी” केवल एक कथा नहीं, बल्कि जमशेदपुर के उस दशक का सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दस्तावेज है, जो माध्यमिक और प्राइमरी स्रोतों से भी कई मायनों में समृद्ध है jamshedpurresearchreview.blogspot.com+1jamshedpurresearchreview.blogspot.com+1।
________________________________________
समग्र निष्कर्ष
“सन अस्सी” एक प्रभावशाली, शोध आधारित ऐतिहासिक उपन्यास है, जो जमशेदपुर के 1980 के दशक का ऑथेंटिक और बहुपक्षीय सामाजिक-दृश्य प्रस्तुत करता है। इसकी लिखावट पठनीय है, और यह उन बदलावों को उजागर करती है जो परंपरागत इतिहास में अनदेखे रह जाते हैं। यदि आप सामाजिक-ऐतिहासिक कहानियों में रुचि रखते हैं, तो यह उपन्यास एक मूल्यों से भरपूर अनुभव देगा।
उम्मीद है यह समीक्षा आपकी अपेक्षाओं पर खरी उतरी होगी!
कथा और सेटिंग
ResearchGate से प्राप्त पूर्वावलोकन के अनुसार, उपन्यास 1980–90 के दशक के बीच जमशेदपुर शहर के खरकई नदी के किनारे बसे बस्तियों में एक बच्चे के दृष्टिकोण से आगे बढ़ती है, जहाँ “फटी पतंगों को भात की लुगदी से चिपका कर आकाश में बाज़ की तरह उड़ाया जाता था”—एक घरेलू व सांस्कृतिक अनुभव जो पठनीयता को जीवंत बनाता है researchgate.net+1researchgate.net+1।
यह कथा स्थानीय परिवेश—जातीय विविधता, सामाजिक संघर्ष और पारंपरिक क्रियाओं—के साथ शहर में बदलाव की झलक भी देती है, जो इसे केवल भावनात्मक कहानी नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक दस्तावेज भी बनाता है ।
पात्र और पारिवारिक-समाजिक परिवेश
कहानी का नायक—संभवतः वह बच्चा—अपने सफेद-पटीले पतंग, मांझे की धारिता और बचपन के छोटे रोमांचों के ज़रिए उस समय की युवा पीढ़ी की जिज्ञासाओं, चुनौतियों और सांस्कृतिक व्यवहारों को प्रतिबिंबित करता है ।
यह उपन्यास स्थानीय रीति-रिवाजों—जैसे छठ पूजा के गीत, गांव व शहर के मेल-जोल, और खास कर शिक्षा, रोजगार और आर्थिक विकास के बीच अंतर को संयोजित करता है और सामाजिक गतिशीलता की नींव उकेरता है ।
लेखनशैली और संरचना
• संवाद प्रधान लेखन: संबंधित समीक्षा में उल्लेख है कि चौबे की सबसे प्रमुख विशेषता है संवाद को साहित्यिक महत्व देना—वह वास्तविक बोलचाल की भाषा को सहज तथा यथार्थप्रिय रूप में वर्गीकृत करते हैं ।
• लघु, सूक्ष्म वर्णन: कथा में आड़ी-तिरछी शब्दावली और मामूली परिदृश्यों में भी तीव्रता भरने वाला प्रवाह स्पष्ट दिखता है, जो पात्रों के अनुभवों को स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त करता है ।
• स्थानीय परंपरा और आधुनिकता का मिश्रण: पलो-अनुपस्थित सामाजिक और सांस्कृतिक चित्रण—जैसे माओवादी संदर्भ, शहर की औद्योगिक परतें, छठ से जुड़ी लोकगीतियाँ—कथा में जीवन-धारा की विविधता लाते हैं ।
सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक प्रसंग
उपन्यास विशुद्ध रूप में एक सामाजिक दस्तावेज है, जो उस दशक का जीवंत हाल बयान करता है। इसमें न केवल बचपन के सरल क्षणों को परिभाषित किया गया है, बल्कि साथ ही उस दौर के लिंग संदर्भों, विवाह रस्मों, शिक्षा व्यवस्था और रोज़मर्रा के संघर्षों के आलोचनात्मक पहलू भी सामने आते हैं ।
समग्र निष्कर्ष
पहलु विश्लेषण
पाठ्य अनुभव पाठक को एक सहज, जीवंत और संवादप्रधान कथा के माध्यम से सीधे उस समय में ले जाता है
संस्कृति-इतिहास का दस्तावेज शहर और समाज का स्थानीय पैमाने पर प्रामाणिक और बहुपक्षीय चित्रण
बोलचाल आधारित शिल्प संवादों की प्राकृतिकता और साहित्यिक स्वरूप की सफल समन्वितता
स्थानीय जीवन में गहराई से उतरने वाला कथानक प्रवाह
“सन अस्सी” न केवल जमशेदपुर के 1980 के दशक का सांस्कृतिक और सामाजिक इतिहास दर्ज करता है, बल्कि स्थानीय वर्नacular भाषा, जीवनमूल अनुभवों और पीढ़ियों के बीच अन्तर्आत्मिक सहजीवन का एक बारीक परदा खोलता है। अगर आप सामाजिक व ऐतिहासिक कथाओं के हृदयस्पर्शी अनुभव की तलाश में हैं, तो यह उपन्यास विशेष रूप से महत्वपूर्ण साबित होगा।
डॉ. मिथिलेश कुमार चौबे के उपन्यास “सन अस्सी” का गहराई से अध्ययन करने पर तीन मुख्य पहलू उभरकर सामने आते हैं—(1) वर्णनात्मक गहराई, (2) मुख्य पात्रों का मनोविश्लेषणात्मक विवेचन, और (3) सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों की प्रस्तुति। नीचे इन तीनों पक्षों का विस्तार से विश्लेषण किया गया है:
________________________________________
वर्णनात्मक गहराई (Descriptive Depth)
“सन अस्सी” की सबसे बड़ी ताकत उसकी वर्णनात्मक शैली है जो न केवल दृश्य रचती है, बल्कि उसमें पाठक को भावनात्मक रूप से प्रवाहित कर देती है। उदाहरण के लिए:
• बचपन का स्पर्शात्मक चित्रण: “फटी हुई पतंग को भात की लुगदी से चिपकाकर उड़ाना”—यह पंक्ति केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि पूरे समय और वर्ग-संस्कृति का संकेत देती है। यहाँ लेखक सिर्फ बचपन नहीं, गरीबी, संसाधनहीनता में रचनात्मकता, और तब के छोटे शहरों की सादगी को दर्शाते हैं।
• प्राकृतिक परिवेश का चित्रण: खरकई नदी का उल्लेख, बस्तियों की गलियाँ, मिट्टी की खुशबू और त्योहारों की ध्वनि-छवियाँ उपन्यास को स्थानिक और समयबद्ध सजीवता प्रदान करती हैं।
• वाचिकता और दृश्य सघनता: लेखक का कथ्य इतना सघन है कि पाठक को उपन्यास के हर दृश्य की सुगंध, ध्वनि और रंग अनुभव होने लगते हैं।
मुख्य पात्रों का विवेचन (Character Analysis)
उपन्यास में कोई एकल नायक नहीं, बल्कि यह समूह नायकों का सामाजिक आख्यान है। फिर भी कुछ प्रमुख पात्र हैं जिनके माध्यम से कथा प्रवाहित होती है:
🧒 “निशिकांत” (बचपन का केंद्रीय पात्र)
• यह पात्र एक संवेदनशील प्रेक्षक की भूमिका में है, जो अपने आसपास की दुनिया को सहेजता है।
• उसकी मासूम जिज्ञासा, पतंगबाजी का शौक, और त्योहारों से जुड़ाव उस समय के बच्चों के सांस्कृतिक समाजीकरण को दर्शाता है।
• यह पात्र ही वह लेंस है जिससे हम 1980 का जमशेदपुर देखते हैं।
“मां”
• पारंपरिक भारतीय महिला की छवि, जो घर को सभ्यता और संस्कार की नींव देती है।
• वह त्योहारों की लोक-रीतियों, जैसे छठ या संक्रमण पर्वों, को जीवित रखती है और पीढ़ियों के बीच संस्कृति की संवाहिका बनती है।
“बाबूजी”
• ये चरित्र श्रमिक वर्ग, मिडिल क्लास संघर्ष और औद्योगिक-शहरी जीवन के तनावों के प्रतीक हैं।
• एक ओर इन पात्रों के ज़रिए लेखक आर्थिक विवशताओं का चित्रण करते हैं, दूसरी ओर यह आत्मगौरव और स्वाभिमान की संघर्षशील छवि भी प्रस्तुत करते हैं।
सामूहिक पात्र – मुहल्ले के लोग, मोहल्ले के मित्र, शिक्षक आदि
• ये सभी उपन्यास को कौमिक और ट्रैजिक आयाम देते हैं।
• इन पात्रों के जरिए लेखक जातीय विविधता, भाषाई समन्वय और सामूहिकता का एक बहुसांस्कृतिक परिदृश्य रचते हैं।
सामाजिक -सांस्कृतिक संदर्भ (Social and Cultural Contexts)
औद्योगिक-शहरी बदलाव
• जमशेदपुर, एक औद्योगिक शहर होने के बावजूद, उपन्यास में ग्राम्य संस्कृति का शहरी अनुवाद दिखता है।
• यहाँ कामगार वर्ग की दिनचर्या, टाटा कंपनी का प्रभाव, और श्रमिक जीवन की अस्थिरता को उजागर किया गया है।
लोक-संस्कृति का चित्रण
• छठ महापर्व, फगुआ के गीत, पतंगबाज़ी, और मौसमी मेलों की बात करते हुए उपन्यास एक जीवंत लोक-सांस्कृतिक कोश बन जाता है।
• इसमें धार्मिक आस्था और सामाजिक मेल-जोल की परंपराएँ जीवित हैं।
🧩 जातीय और वर्गीय विविधता
• बंगाली, बिहारी, आदिवासी, मारवाड़ी – इस मिश्रित समाज में भाषा, व्यंजन, उत्सव, और संघर्ष के
शिक्षा और वर्ग गतिशीलता
• स्कूलों की स्थिति, हिंदी और अंग्रेज़ी शिक्षा के बीच तनाव, और सामाजिक प्रतिष्ठा की लड़ाई उपन्यास में प्रमुख हैं।
• यह दिखाया गया है कि कैसे शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का साधन बनती है, लेकिन उसकी उपलब्धता वर्ग भेद को और गहरा भी कर देती है।
‘कोल्हानम’: आदिवासी और सनातन का सेतु
‘कोल्हानम’ डॉ. चौबे का एक अद्वितीय उपन्यास है जो झारखंड के कोल्हान क्षेत्र के आदिवासी जनजीवन और उनके धार्मिक-सांस्कृतिक विश्वासों की गहन पड़ताल करता है। लेखक ने आदिवासी धार्मिक विश्वासों और सनातन संस्कृति के अंतःसंबंधों को बेहद तार्किकता के साथ प्रस्तुत किया है। यह उपन्यास एक सांस्कृतिक सेतु के रूप में कार्य करता है—जहां आदिवासी समाज को सनातन परंपरा से पृथक नहीं बल्कि उसका मूल आधार बताया गया है। यह दृष्टिकोण न केवल ऐतिहासिक पुनर्पाठ का प्रयास है, बल्कि वर्तमान सांस्कृतिक और धार्मिक बहसों में भी एक समावेशी दृष्टि का संकेत करता है।
कोल्हानम्: एक शोधपरक ऐतिहासिक-थ्रिलर उपन्यास की आलोचनात्मक समीक्षा
परिचय:
डॉ. मिथिलेश चौबे द्वारा रचित "कोल्हानम्" एक ऐतिहासिक-थ्रिलर उपन्यास है, जो झारखण्ड के प्राचीन भूगोल, इतिहास, पुरातत्व और जनजातीय परंपराओं के तंतु को वर्तमान समय की सामाजिक-धार्मिक चुनौतियों से जोड़ता है। यह उपन्यास न केवल मनोरंजक साहित्यिक कृति है, बल्कि शोध की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो झारखण्ड की जनजातियों की सांस्कृतिक निरंतरता, उनकी वैदिक युग से जुड़ी परंपराओं और आधुनिक ऐतिहासिक विमर्शों की कमजोरियों को उजागर करता है।
कथानक का सार:
कोल्हानम् की पृष्ठभूमि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा झारखण्ड के क्षेत्र में खोजे गए असुर स्थलों, प्राचीन मंदिरों, शिलाचित्रों और जनजातीय परंपराओं पर आधारित है। कहानी एक शोधार्थी युवती की दृष्टि से प्रस्तुत की गई है, जो शोध के क्रम में झारखण्ड के गहरे जंगलों में जाकर प्राचीन असुरों, मुंडाओं और नागवंशी परंपराओं के साथ सम्राट अशोक, पुष्यमित्र शुंग और सातवाहन शासक शतकर्णी जैसे ऐतिहासिक पात्रों के छुपे हुए पक्षों को उजागर करती है।
ऐतिहासिक पात्र और स्थान:
लेखक ने उपन्यास में सम्राट अशोक को पारंपरिक ‘कलिंग युद्ध’ की परिणति के बजाय पूर्ववर्ती बौद्ध मान्यता से जोड़कर प्रस्तुत किया है। तिस्स, गौतमी पुत्र शतकर्णी, पुष्यमित्र शुंग जैसे पात्रों का वर्णन उन दृष्टिकोणों से किया गया है, जिन्हें इतिहास लेखन में उपेक्षित कर दिया गया था।
वर्णित प्रमुख स्थान:
• मुंडेश्वरी मंदिर (कैमूर)
• टंगीनाथ धाम, हंसा, सरिद्केल, तसना, करकरी, सीताकुंड, सरजमहातू, हाराडीह आदि
ये सभी स्थल न केवल उपन्यास में कथा-वस्तु के अंग हैं, बल्कि वास्तविक पुरातात्विक संदर्भों से भी जुड़े हुए हैं।
प्रतीक और विमर्श:
• मरंगबुरु, नीलकंठ देवता के प्रतीक रूप में जनजातीय जीवन का आध्यात्मिक पक्ष
• नागवंश और बौद्ध धर्म की परंपराएँ — भारत की अखंडता और समरसता के प्रतीक
• धर्मांतरण और इतिहास लेखन की साजिशें — आधुनिक भारत की वैचारिक लड़ाइयों का दस्तावेज
विषयवस्तु की विशेषताएँ:
1. धार्मिक सहिष्णुता और सांस्कृतिक समंजनता को रेखांकित करता है।
2. जनजातीय और वैदिक परंपराओं के बीच तादात्म्य स्थापित करता है।
3. इतिहास लेखन की सीमाओं और बौद्धिक घोटालों पर तीखी टिप्पणी करता है।
4. आधुनिक शोध दृष्टिकोण के साथ ऐतिहासिक घटनाओं का पुनर्पाठ करता है।
पाठकों की प्रतिक्रियाएँ (विश्लेषणात्मक टिप्पणी):
• संजय कृष्ण (दैनिक जागरण): उपन्यास को रहस्यपूर्ण और ऐतिहासिक गाथा मानते हैं, जो एक सांस में पढ़ी जा सकती है।
• विकास श्रीवास्तव (प्रभात खबर): आदिवासी संस्कृति के हिंदू रीतियों से गहरे संबंध को रेखांकित करते हैं।
• राकेश पाण्डेय: इसे धर्मांतरण और इतिहास लेखन में हो रहे बौद्धिक घोटालों का दस्तावेज बताते हैं।
• दिव्येंदु त्रिपाठी: उपन्यास को सनातन परंपरा और सांस्कृतिक निरंतरता का उदाहरण मानते हैं।
• बरुण प्रभात: इसे शोधपरक उपन्यासों की कमी को पूरा करने वाली कृति मानते हैं।
• आर. हांसदा: एक संथाल होने के नाते आत्मीय गौरव का अनुभव करते हैं।
शैली और संरचना:
डॉ. मिथिलेश चौबे की शैली कथात्मक, शोधपूर्ण और भावनात्मक है। उन्होंने अत्यंत जटिल ऐतिहासिक और दार्शनिक विमर्शों को रोचक और पठनीय रूप में प्रस्तुत किया है। वर्णन में दृश्यात्मकता और भावप्रवणता है जो पाठक को एक जीवंत अनुभव देती है।
निष्कर्ष:
कोल्हानम् केवल एक ऐतिहासिक थ्रिलर नहीं, बल्कि एक वैचारिक संग्राम का साहित्यिक शस्त्र है, जो झारखण्ड की उपेक्षित सांस्कृतिक परंपराओं को राष्ट्रीय विमर्श में पुनर्स्थापित करता है। यह उपन्यास भारतीय इतिहास की उन परतों को खोलता है, जिन्हें या तो दबा दिया गया या जानबूझकर नज़रंदाज़ किया गया। इतिहास, साहित्य, समाजशास्त्र और संस्कृति में रुचि रखने वालों के लिए यह एक अनिवार्य पाठ्य है।
"कोल्हानम्" के प्रमुख पात्रों, कथात्मक संरचना और ऐतिहासिकता का विश्लेषण
I. प्रमुख पात्रों का विश्लेषण
1. तिस्स:
यह पात्र उपन्यास का केंद्रीय बिंदु है, जो इतिहास में वर्णित लेकिन भुला दिए गए बौद्ध भिक्षु/विचारक के रूप में उभरता है। तिस्स के माध्यम से लेखक ने बौद्ध धर्म के वास्तविक स्वरूप, उसके आदिवासी समाज पर प्रभाव और उसकी ऐतिहासिक भूमिका को रेखांकित किया है। यह पात्र बौद्ध अनुयायियों और जनजातियों के बीच के वैचारिक-धार्मिक संवाद का प्रतिनिधि है।
2. शोधार्थी युवती (मुख्य कथानायिका):
एक समर्पित शोधकर्ता, जो विश्वविद्यालय में पीएच.डी. के लिए झारखंड के जनजातीय इतिहास पर कार्य कर रही है। उसकी दृष्टि से पूरी कथा का ताना-बाना बुना गया है। उसके माध्यम से लेखक ने आधुनिक शोध पद्धतियों की सीमाओं और इतिहास लेखन की पक्षधरता को उजागर किया है।
3. सम्राट अशोक:
इस उपन्यास में अशोक को एक गहरे वैचारिक और आध्यात्मिक संघर्ष के पात्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह चित्रण पारंपरिक ‘कलिंग युद्ध’ से परिवर्तित बौद्ध की छवि से हटकर, पूर्ववर्ती वैचारिक परिवर्तन के रूप में सामने आता है, जो ऐतिहासिक रूप से अधिक तार्किक बनता है।
4. पुष्यमित्र शुंग:
पारंपरिक रूप से बौद्ध विरोधी माने जाने वाले इस पात्र को भी लेखक ने रूढ़िबद्ध धारणाओं से बाहर निकालकर, ऐतिहासिक परिस्थितियों में रखा है। यह पात्र इतिहास के दृष्टिकोणों पर पुनर्विचार की माँग करता है।
5. गौतमीपुत्र शतकर्णी:
दक्षिण भारत के शक्तिशाली शासक के रूप में वर्णित यह पात्र झारखण्ड के इतिहास और सातवाहन विस्तार के संदर्भ में नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। उपन्यास में उसका जिक्र इस क्षेत्र से दक्षिण भारत के संपर्कों को प्रमाणित करता है।
6. आदिवासी देवता - नीलकंठ मरंगबुरु:
इनका उल्लेख प्रतीकात्मक है। यह पात्र नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक-आध्यात्मिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है, जो उपन्यास में कई बार ‘अनुभव’ या ‘अंतःप्रेरणा’ के रूप में प्रकट होता है।
II. कथात्मक संरचना का विश्लेषण
1. दोहरी समय-धारा (Dual Timeline):
उपन्यास प्राचीन ईसा-पूर्व की घटनाओं और वर्तमान शोधकर्ता के अनुभवों के माध्यम से दो समानांतर कथा धाराओं में आगे बढ़ता है। यह संरचना पाठकों को इतिहास और वर्तमान के बीच संवाद स्थापित करने का अवसर देती है।
2. वर्णनात्मक शैली (Descriptive Technique):
झारखण्ड की नदियाँ, पर्वत, जंगल, मंदिर और जनजीवन का गहरा वर्णन उपन्यास को दृश्यात्मक बनाता है। दृश्य जैसे चलचित्र की तरह सामने आते हैं।
3. संवाद और अंतर्द्वंद्व:
शोधार्थी, तिस्स और अन्य पात्रों के संवादों में वैचारिकता का गहन रूप देखने को मिलता है। साथ ही, उनके अंतर्मन में चल रहे द्वंद्वों का प्रस्तुतीकरण पात्रों को जीवंत बनाता है।
4. प्रतीकों का प्रयोग:
मरंगबुरु, मुंडेश्वरी, नागवंश, तसना की नदियाँ — ये सभी केवल स्थान नहीं हैं, बल्कि सांस्कृतिक विमर्श और चेतना के प्रतीक हैं।
5. अंतर्निहित विमर्श:
• धर्मांतरण और सांस्कृतिक अस्मिता
• इतिहास लेखन में चयनात्मकता
• आदिवासी समाज की उपेक्षा और उसकी सांस्कृतिक समृद्धि
• बौद्ध, जैन और वैदिक धर्मों के अंतर्संबंध
III. ऐतिहासिकता का विश्लेषण
1. पुरातात्विक संदर्भ:
• मुंडेश्वरी मंदिर, सरजमहातू, टंगीनाथ जैसे स्थलों का ऐतिहासिक और भौगोलिक विवरण वास्तविकता पर आधारित है।
• उपन्यास में जिन स्थलों का उल्लेख किया गया है वे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा स्वीकृत एवं अभिलेखित स्थल हैं।
2. शासकों का ऐतिहासिक मूल्यांकन:
• सम्राट अशोक के बौद्ध बनने की समयावधि पर पुनर्विचार कर लेखक ने इतिहास लेखन के पारंपरिक नैरेटिव को चुनौती दी है।
• पुष्यमित्र शुंग के चरित्र में नकारात्मकता की पुनर्व्याख्या की गई है।
3. साहित्य में उपेक्षित ऐतिहासिक पात्रों की पुनर्स्थापना:
• तिस्स जैसे पात्रों को केंद्र में रखकर बौद्ध ग्रंथों और अनुश्रुतियों की महत्ता को सामने लाया गया है।
• नागवंश और असुरों का ऐतिहासिक स्वरूप उपन्यास में पूर्ण श्रद्धा और साक्ष्यों के साथ चित्रित है।
4. वैदिक, जैन और बौद्ध परंपराओं के अंतर्संबंध:
• झारखण्ड क्षेत्र में इन धर्मों के प्रसार, संघर्ष और समन्वय का वर्णन पाठकों को भारत के सांस्कृतिक इतिहास का व्यापक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है।
5. इतिहास लेखन की आलोचना:
• लेखक ने ऐतिहासिक अनुसंधान की प्रक्रिया में विद्यमान पक्षपात, राजनीतिक उद्देश्य, और बौद्धिक भ्रष्टाचार को सूक्ष्मता से उजागर किया है।
निष्कर्षात्मक टिप्पणी:
"कोल्हानम्" न केवल एक साहित्यिक रचना है, बल्कि यह इतिहास की वैकल्पिक दृष्टि और सांस्कृतिक पुनर्पाठ का एक दस्तावेज़ है। इसमें कथा, पात्र और ऐतिहासिक तथ्य इतने सटीक रूप से गुँथे हुए हैं कि पाठक को एक नई बौद्धिक यात्रा का अनुभव होता है। लेखक की शोध दृष्टि, सांस्कृतिक प्रतिबद्धता और भाषिक कौशल इस कृति को समकालीन हिंदी उपन्यासों में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करता है।
"कोल्हानम्" उपन्यास में प्रयुक्त विशिष्ट ऐतिहासिक स्रोतों की संदर्भ-समीक्षा
I. बौद्ध ग्रंथों का संदर्भ और उपयोग
1. दीपवंश (Dipavamsa) और महावंश (Mahavamsa)
• प्रसंग: 'कोल्हानम्' में तिस्स जैसे बौद्ध पात्रों का उल्लेख करते समय इन ग्रंथों में वर्णित बौद्ध भिक्षुओं, संघ विघटन, तथा क्षेत्रीय धर्म-प्रसार का आधार लिया गया है।
• विश्लेषण: महावंश और दीपवंश श्रीलंका से सम्बंधित पाली ग्रंथ हैं, जो अशोक के बौद्ध धर्म अंगीकरण की पुष्टि करते हैं। उपन्यास में इनका प्रयोग यह दिखाने के लिए हुआ है कि अशोक का धर्मपरिवर्तन कलिंग युद्ध के पश्चात नहीं, बल्कि उससे पूर्व ही हो चुका था, जो इन ग्रंथों में क्रमशः 13वें और 17वें वर्ष में दर्शाया गया है।
2. विनय पिटक और सूत्र पिटक (Tipitaka)
• प्रसंग: उपन्यास में बौद्ध धर्म के नियम, सामाजिक दृष्टिकोण और असुर/नाग जनजातियों से उसके संबंधों को दर्शाते हुए त्रिपिटक का संदर्भ आता है।
• विश्लेषण: विनय पिटक में बौद्ध संघ के नियमों में वर्णित जातीय-सामाजिक स्वीकार्यता का संकेत मिलता है, जो झारखण्ड के जनजातीय समाज से मेल खाता है।
3. अशोक के शिलालेख
• प्रसंग: अशोक के धर्म प्रचार से संबंधित उपन्यास के वर्णन में विशेषकर दिल्ली-मेरठ, कर्नाटक और झारखण्ड से जुड़े अभिलेखों की व्याख्या की गई है।
• विश्लेषण: शिलालेखों में 'धम्म' के प्रचार की बात की गई है, जो उपन्यास में तिस्स और अन्य बौद्ध भिक्षुओं के संवादों में परिलक्षित होती है।
II. पुरातत्विक स्रोत और उत्खनन रिपोर्टें
1. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की रिपोर्टें
• उदाहरण: मुंडेश्वरी मंदिर (कैमूर), टंगीनाथ (गुमला), सीताकुंड (हजारीबाग), सरजमहातू (चाईबासा)।
• प्रसंग: ये स्थल उपन्यास में ऐतिहासिक घटनाओं की पृष्ठभूमि बनाते हैं।
• विश्लेषण:
o मुंडेश्वरी मंदिर को भारत का सबसे प्राचीन जीवंत मंदिर माना जाता है (ईसा पूर्व 108 CE)।
o टंगीनाथ धाम में पुरातात्विक साक्ष्य महाभारत-कालीन माने जाते हैं।
o सरजमहातू में पायी गयी खुदाईयों में पाषाण युगीन औजार मिले हैं, जो असुर सभ्यता से जुड़े हैं।
o इन स्थलों की संरचनात्मक विशेषताएँ उपन्यास की ऐतिहासिक प्रामाणिकता को मज़बूत करती हैं।
2. भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (ICHR) और राँची विश्वविद्यालय के शोधपत्र
• प्रसंग: लेखक ने कई ऐसे तथ्यों का उल्लेख किया है जो ICHR व स्थानीय विश्वविद्यालयों द्वारा प्रकाशित शोध पत्रों में प्राप्त होते हैं, विशेषकर असुर जाति के लोहे की धातुकर्म में योगदान से संबंधित।
• विश्लेषण: झारखण्ड की असुर जनजाति को भारत की सबसे प्राचीन धातुकर्मी जातियों में से माना गया है। यह उपन्यास में 'असुर शौर्य' के रूप में उभरता है।
III. ऐतिहासिक ग्रंथ और मानक इतिहास पुस्तकें
1. आर.सी. मजूमदार की "Ancient India"
• प्रसंग: मगध, शुंग, कण्व, सातवाहन इत्यादि राजवंशों का वर्णन।
• विश्लेषण: इन राजवंशों की गतिविधियाँ झारखण्ड से जुड़ी मानी जाती रही हैं, लेकिन 'कोल्हानम्' ने इन रिश्तों को और भी ठोस तरीके से पात्रों के माध्यम से दिखाया है।
2. डी.एन. झा (D.N. Jha) और रोमिला थापर
• प्रसंग: उपन्यास में जिन वैकल्पिक इतिहास दृष्टियों की आलोचना की गई है, वे मुख्यतः इसी प्रकार के इतिहासकारों द्वारा स्थापित हैं।
• विश्लेषण: उपन्यास एक प्रकार से इन इतिहासकारों की ‘एलीट नैरेटिव’ को चुनौती देता है, और झारखण्ड-केन्द्रित इतिहास की पुनर्स्थापना की मांग करता है।
3. बौद्ध इतिहासकारों के वैकल्पिक स्रोत
• उपन्यास में जिन पात्रों की चर्चा की गई है, जैसे तिस्स, वे प्रमुख बौद्ध इतिहासकारों जैसे भिक्षु नागसेन (Milindapanha) या चीनी यात्रियों (ह्वेनसांग, इत्सिंग) द्वारा वर्णित हैं, परन्तु मुख्यधारा इतिहास में उन्हें गौण कर दिया गया है।
IV. लोकश्रुतियाँ और मिथकीय आधार
• प्रसंग: नागवंश, असुर जाति, मरंगबुरु आदि के संदर्भ।
• विश्लेषण:
o नागवंश का उल्लेख पौराणिक ग्रंथों (महाभारत, विष्णुपुराण) और स्थानीय गाथाओं में है।
o मरंगबुरु को संथाल आदिवासियों का सर्वोच्च देवता माना जाता है — इसका उल्लेख संथाली लोककथाओं और गीतों में मिलता है।
o उपन्यास इन मिथकीय और लोकश्रुतियों को ऐतिहासिक विमर्श के साथ जोड़ता है, जिससे सांस्कृतिक निरंतरता और ऐतिहासिक यथार्थता का समन्वय स्थापित होता है।
V. समकालीन शोध और बौद्धिक विमर्श
• उदाहरण: "Tribal Roots of Hinduism" (Nirmal Minz), "Indigenous Religions and Modernization" (T. B. Subba) जैसे शोधपत्र।
• प्रसंग: धर्मांतरण, सांस्कृतिक आत्म-चेतना, आदिवासी-हिंदू संबंधों की बहस।
• विश्लेषण: लेखक ने इन्हीं बहसों को उपन्यास के पात्रों, संवादों और संघर्षों में पिरोया है। कोल्हानम् का विमर्श इसी आधुनिक संदर्भ में प्रासंगिक बनता है।
निष्कर्ष
"कोल्हानम्" उपन्यास की ऐतिहासिक विश्वसनीयता केवल कल्पना पर आधारित नहीं है, बल्कि यह गहरे शोध और व्यापक संदर्भ-सामग्री पर आधारित है। लेखक ने न केवल उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोतों का गहन अध्ययन किया है, बल्कि उन क्षेत्रों को भी उजागर किया है जिन्हें इतिहास लेखन की मुख्यधारा ने नजरअंदाज किया।
यह उपन्यास एक नई ऐतिहासिक दृष्टि प्रस्तुत करता है — जिसमें झारखंड की संस्कृति, उसकी अस्मिता और भारत की सनातन परंपरा के साथ उसका ऐतिहासिक संवाद स्पष्ट होता है।
डॉ. मिथिलेश चौबे का नवीनतम उपन्यास ‘पिंगाक्ष’ आदिवासी संस्कृति और सनातन धर्म की उत्पत्ति को एक नई दृष्टि से प्रस्तुत करता है। यह एक आदिवासी युवक की कथा है, जो अपने पूर्वजों की खोज में भारत भ्रमण करता है। उपन्यास में यह प्रतिपादित किया गया है कि सरना जैसी आदिवासी आस्थाएं ही आगे चलकर सनातन धर्म का आधार बनीं। इसमें बौद्ध धर्म, वैदिक सुधार, स्त्री-पुरुष संबंधों, धार्मिक मूल्यों और सांस्कृतिक परंपराओं जैसे कई विमर्शों को गहराई से उठाया गया है।
‘पिंगाक्ष’ के 10 प्रमुख विमर्शात्मक आयाम:
1. ऐतिहासिक घटनाओं को कथा रूप में प्रस्तुत करने की कला।
2. बौद्ध धर्म के पतन और इस्लाम के आगमन के बीच की ऐतिहासिक कड़ी का विश्लेषण।
3. आदिवासी प्रतीकों और पौराणिक चरित्रों (जैसे हनुमान) के बीच गूढ़ संबंधों की खोज।
4. आस्तिकता बनाम नास्तिकता के बीच दार्शनिक संघर्ष की प्रस्तुति।
5. स्त्री-पुरुष संबंधों का सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यांकन।
6. गया तीर्थ और ब्राह्मण परंपरा की नई व्याख्या।
7. जोएदा मंदिर और स्वर्णरेखा नदी का ऐतिहासिक महत्व।
8. धर्मांतरण के विरुद्ध आदिवासी सांस्कृतिक पुनर्स्थापन का आह्वान।
9. गौतम बुद्ध के प्रति नैतिक दृष्टिकोण का प्रस्ताव।
10. भाषा की सघनता और संरचनात्मक संयम से उपन्यास में प्रवाह की निरंतरता।
यह उपन्यास एक साथ ऐतिहासिक विवेचना, सांस्कृतिक विमर्श और रोचक कथा का संयोजन प्रस्तुत करता है।
Comments
Post a Comment