Book Review: San Assee( ISBN:ISBN: 978-93-5267-586-9)
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सन अस्सी (San Assee -ISBN: 978-93-5267-586-9) के द्वितीय संस्करण पर राहुल देव जी टिप्पणी :
लघु उपन्यास के चोले में प्रस्तुत ये 'केस स्टडी' वाकई लाजवाब और काबिले तारीफ़ है।
जब मैंने इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया था,,तो इसे जल्दी से समाप्त करने की मेरी उत्कंठा पृष्ठ-दर-पृष्ठ बढ़ती ही चली गई थी। विराम लेने की तो इच्छा ही नहीं होती थी......…......और यकीन मानिए.............मैंने सारे कामों को ताक पर रख कर एक-से-दो दिनों में पूरी किताब पढ़ डाली थी ।
वस्तुत: इसके कथानक की संजीदगी और लेखनशैली की विलक्षणता के अविरल प्रवाह में मैं बहता चला गया......... लगता था जैसे इसके पात्र सजीव हो कर मेरे इर्द-गिर्द ही घूम रहे हों.......... वास्तव में, मैं स्वयं को भी उन्हीं पात्रों के बीच कहीं न कहीं खड़ा पाता हूं।
वस्तुत: इसके कथानक की संजीदगी और लेखनशैली की विलक्षणता के अविरल प्रवाह में मैं बहता चला गया......... लगता था जैसे इसके पात्र सजीव हो कर मेरे इर्द-गिर्द ही घूम रहे हों.......... वास्तव में, मैं स्वयं को भी उन्हीं पात्रों के बीच कहीं न कहीं खड़ा पाता हूं।
काल्पनिक पात्रों के साथ ऐसी जीवंत कृति!!
चौबे जी! कमाल की है आप की ये प्रस्तुति!!
मौलिकता तो इसके पोर-पोर में समायी हुई है........ जमशेदपुर से ताल्लुक रखने वाले हर व्यक्ति जो ये किताब पढ़ेंगे,वे तो निश्चित तौर पर इसके हर किरदार को अपने आसपास महसूस करेंगे ही........... मुझे तो ये भी लगता है कि न केवल जमशेदपुर बल्कि भारत के सारे औद्योगिक शहरों की कमोबेश यही तस्वीर होगी जिसे आप ने उकेरा है।
चौबे जी! कमाल की है आप की ये प्रस्तुति!!
मौलिकता तो इसके पोर-पोर में समायी हुई है........ जमशेदपुर से ताल्लुक रखने वाले हर व्यक्ति जो ये किताब पढ़ेंगे,वे तो निश्चित तौर पर इसके हर किरदार को अपने आसपास महसूस करेंगे ही........... मुझे तो ये भी लगता है कि न केवल जमशेदपुर बल्कि भारत के सारे औद्योगिक शहरों की कमोबेश यही तस्वीर होगी जिसे आप ने उकेरा है।
संवाद अदायगी में क्षेत्रीय बोलियों के बेहतरीन प्रयोग द्वारा सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, पर्यावरणीय आदि विभिन्न मुद्दों पर अत्यंत ही साफगोई के साथ चर्चा की गई है......... इससेे ये भी साबित होता है कि लौहनगरी के इस लेखक का जिगर भी फौलादी है........ वरना पन्ने-दर-पन्ने झलकती निर्भीकता,नीडरता और बेबाकी कहां से आती?
हर पीढ़ी के लोगों को कुछ न कुछ संदेश देती आपकी ये रचना अद्भुत है। लगता है इसमें आम जीवन का कोई भी पक्ष अछूता नहीं रह गया है। बहुत ही कम पृष्ठों में तत्कालीन समाज का आपने ऐसा अनूठा चित्रण किया है, जो आधुनिक समाज को आईना दिखाता प्रतीत होता है।
मिथिलेश भाई! आपने तो गागर में सागर भरने वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया है।
मिथिलेश भाई! आपने तो गागर में सागर भरने वाली कहावत को चरितार्थ कर दिया है।
आपकी इस अनोखी रचना के द्वितीय संस्करण में थोड़ा सा सहयोग करने का जो मौका मुझे मिला उसके लिए मैं खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं।
यूं ही अनुसंधान करते रहो मित्र........ मुझे किंचित मात्र भी संदेह नहीं कि रचनात्मक लेखन की डगर पर आप कोसों दूर तलक जाओगे..............
शुभकामनाओं सहित
राहुल देव
राहुल देव
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