Book Review: San Assee( San Assee)
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सन अस्सी सिर्फ एक कहानी नहीं है. बल्कि ये अस्सी के दशक के जमशेदपुर की
मोहल्ला संस्कृति और तत्कालीन पर्यावरणीय वातावरण
दस्तावेजीकरण है. यह किताब आज के अनुसंधानकर्ताओं
को १९८० के जमशेदपुर में गंगा की खेतिहर
पृष्ठभूमि से आकर जमशेदपुर के औद्योगिक वातावरण में एक किसान का मजदूर में तब्दील
होने की प्रक्रिया को जानने समझने का मौका देती है. इस किताब के लेखक की सबसे बड़ी खूबी
‘संवाद’ को ‘साहित्य’ के ऊपर प्राथमिकता देने की हिम्मत है. इस किताब का लेखक अपनी
आड़ी-तिरछी शब्दावली और वाक्यविन्यास के साथ नितांत ही मौलिक, अनूठा और विलक्षण है.
मै दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस तरह कि इस किताब को लिखने के लिए खरकई की रेत
में वषों तक लोटना जरुरी है. सन अस्सी के शुरूआती पन्नों में एक अजीब सा सकून भरा
ठहराव है, जो आपको अनायास ही आपके बचपन में लेकर चला जाता है, लेकिन इस किताब के
उतरार्द्ध की गति अभिभूत कर देती है और सन अस्सी की कहानी या सच जो भी आप कहें
आपको इसके आखरी पन्ने तक ठहरने नहीं देती. जैसे जैसे आप इस किताब के पन्ने पलटते
जाएंगे वैसे वैसे इस किताब के पात्र आपके इर्द-गिर्द आकर इस प्रकार खड़े हो जाएँगे
मानो आपकी और इनकी बहुत पुरानी पहचान हो. सन अस्सी का पहला हिस्सा इस दौर के
किशोरों की डेस्टिनी है और दूसरा हिस्सा उनका संघर्ष. घटनाएँ बिलकुल ही जानी
पहचानी हैं, लेकिन लेखन की शैली बिलकुल मौलिक और सशक्त है. एक उदाहरण पर नजर डालते
हैं:
“------ लाल आलता से रंगे हुए पैरों में पायल और ऊँची हील वाली
सैंडल. गुलाबी रंग की बेलबाटम और उसके ऊपर कमर तक कुरता. होठों पर लाल-लाल
लिपिस्टिक, कानों में कदमा गणेशपूजा मेले से ख़रीदे हुए
बड़े-बड़े झुमके और हाथों में सिंदूरी रंगों के दो–दो बाले.
तभी रूपा धीरे से उनके नजदीक आकर बोली, “कैसी लग रहे हैं हम?”
“एकदम्मे परबीन बौबी,” निशिकांत नें
सम्मोहित होकर उत्तर दिया. लेकिन, रूपा नाराज होने का अभिनय करती हुई बोली, “हमको परबीन बौबी एकदम्मे पसंद नहीं है. हमको तो हेमा मालिन
पसंद है.” भरतमुनि तिवारी, उमर उजाला
शीर्षक: सन् अस्सी
लेखक : डॉ० मिथिलेश चौबे
प्रकाशक: ज्ञान ज्योति रिसर्च ट्रस्ट
उपलब्धता : आमेजन
ISBN: 93-5267-586-9
प्रकाशन का वर्ष :2017 (द्वितीय
संस्करण)
मूल्य 99 

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