कोल्हानम (KOLHANAM) -छोटानागपुर पठार के सनातन संपर्कों को तलाशती ईसा-पूर्व 100 की महागाथा !! (ISBN: 978-93-5416-405-7)
उपन्यास समीक्षा /पाठकों की प्रतिक्रिया
कोल्हानम
छोटानागपुर पठार के सनातन संपर्कों को तलाशती ईसा-पूर्व 100 की महागाथा !!
ISBN 978-93-5416-405-7
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Title: कोल्हानम (उपन्यास, Fiction)
लेखक: डॉ० मिथिलेश कुमार चौबे
कॉपीराइट: लेखक (सर्वाधिकार सुरक्षित)
संस्करण: प्रथम
प्रकाशन का वर्ष:2020
पुस्तक वर्जन: पेपर बैक
मूल्य: 150 रूपये
ISBN: 978-93-5416-405-7
पुस्तक समीक्षा: वरुण प्रभात
अत्यधिक रोचक और ज्ञानवर्धक उपन्यास है.कोल्हानम!!
श्री मिथलेश चौबे जी के द्वारा लिखित कोल्हानं में सनातन संस्कृति के उत्थान के पूरे इतिहास को उद्धरित किया गया है।धर्मान्तरण के विषैले प्रकोप से बचाने के लिए भी महत्वपूर्ण है।
मैंने अपनी पत्नी से भी कहा कि वह इस उपन्यास को जरुर पढ़े.
@श्री सुबोध श्रीवास्तव, पूर्व-उपाध्यक्ष, टाटा वर्कर्स यूनियन.झारखण्ड प्रदेश.
Vikas Srivastava सर्व प्रथम मिथिलेश सर आपको एक और नयी पुस्तक (उपन्यास) लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई. आपने मुझे आपने अपने इस उपन्यास के छपने के पूर्व समीक्षा करने के काबिल समझा, इसके लिए आपका आभार.
कोल्हानम उन उपन्यासों से बहुत अलग है जिसमें केवल रहस्मयी कहानियां होती है. यह कई तथ्यों के साथ उन सच्चाई को उजागर करने वाला उपन्यास साबित होगा जिसके बारे में लोग दबी जुबान से चर्चा को करते हैं, लेकिन विरोध नहीं कर पाते हैं. विश्वविद्यालय में पीएचडी के नाम किस तरह से परिवार वाद होता है. आम विद्यार्थियों को परेशान किया जाता है इसको आपने जिस तरह से कहानी के रूप में प्रस्तुत किया है वह इसकी रोचकता और महत्व को बढ़ा रही है. यह अपने उपन्यास में एक स्कैम के खुलासा के तौर पर भी पढ़ा जायेगा. विश्वविद्यालय में रिसर्च (पीएचडी) करने आयी छात्रा की कहानी से आपने जिस तरीके से झारखंड के आदिवासियों की संस्कृति उनका हिंदू रीतियों से जुड़ा होने का सबूत देना, वैसे लोगों के गाल पर तमाचा है जो यहां के आदिवासियों को अक्सर गाहे बगाहे अलग लाइन में खड़ा कर देते हैं और उन्हें भड़काने का काम करते हैं. कोल्हानम के माध्यम से आपने झारखंड की संस्कृति को भी चित्रित करने काम किया है. इसे पढ़ने से कई लोगों की जानकारी का स्तर बढ़ेगा. यह उपन्यास उनके लिए काफी उपयोग साबित होगा, जो झारखंडी संस्कृति सभ्यता को समझना चाहते हैं. पुस्तक में आपने बौद्ध धर्म का जिक्र और झारखंड ही नहीं भारत से उसके जिस तरीके से संबंध को सामने रखा है यह मुझ जैसे लोगों के बिल्कुल नयी जानकारी है. उपन्यास का हर पहलू पाठक को आगे पढ़ने पर मजबूर करेगा. कहानियों का जुड़ाव उसके तारतम्य को बनाने में काफी कारगर साबित दिख रहा है. मेरे से पूर्व समीक्षक ने आपको इसमें कुछ सुझाव जरूर दिये होंगे. लेकिन मैं यह सुझाव आपको व्यक्तिगत तौर पर दूंगा. चुकी किताब प्रकाशित होने वाली है. इसलिए इस संबंध में फेसबुक पर लिखना उचित नहीं समझा. एक बार फिर से आपको फिर से इस अवसर के लिए आभार और धन्यवाद. कोल्हानम की सफलता की पूर्व से आपको बधाई.
इस उपन्यास की शैली और संरचना दोनों जीवंत है। इसमें तथ्यात्मक पहलुओं को पिरोया गया है। कहीं-कहीं कल्पनाओं का सहारा भी पाठक को रोचकता प्रदान करने के लिए लेखक ने लिया है। कुछ उक्तियाँ, कुछ हास्य परिहास की बातें इस उपन्यास को सजीव बनाने में सहायक बन पड़े हैं। समसामयिक घटनाओं को आधुनिक परिपेक्ष में दिखाने का प्रयास किया गया है। चरित्र चित्रण भी कथा के अनुरूप हीं किए गए हैं।
बहरहाल लम्बी समीक्षा की ओर न जाते हुए इतना कह सकता हूं कि डा. मिथिलेश की यह पुस्तक धर्मांध लोगों की कुत्सित मानसिकता और उसके आड़ में कई समाज विरोधी संस्थाओं की और भी इशारा करती है। जो यह नहीं चाहते की लोग एक रहें।
आशा है यह पुस्तक बहुत सारे लोगों के भ्रम को दूर करने का कर्य करेगी जो एक थोपी हुई मानसिकता के अंध समर्थक होकर मूल चीजों को नकारने का कार्य करते हैं।
अगर एक वाक्य में कहूँ तो डा. मिथिलेश की यह पुस्तक " सत्य सनातन को स्थापित करने वाली साबित होगी" ।
मैं उनके इस पुस्तक की सफलता और पाठकों पर सकारात्मक प्रभाव डालने के लिए बधाई और शुभकामनाएं देता हूँ।
राकेश कुमार पाण्डेय
सहायक प्राध्यापक/रंगकर्मी
ग्रेजुएट कॉलेज, जमशेदपुर।
कोल्हानम, झारखण्ड में रहने वाली जनजातियों की सांस्कृतिक जड़ों को तलशता एक बेहद अद्भुत उपन्यास है. इस उपन्यास को मै आप सभी को इस पुस्तक की पढने की सलाह दूंगा, खर कर उन्हें जो, जनजातीय समाज को भारत की मूल सांस्क्रतिक धारा से अलग मानते है.
बेहतरीन प्रस्तुति, रहस्यमयी और ज्ञानवर्धक!!!
@ प्रो० कमलेश कुमार कमलेन्दु
किताब एक बैठक में ख़त्म ! लगता है, इसे लिखते समय मिथिलेश जी की कलम पर कोई प्रेत बैठ गया था. कथावस्तु बेहद दिलचस्प है, लेकिन, वैचारिक रूप से कंटेंट पर मेरी असहमति है. मिथिलेश की पिछली किताब 'सन अस्सी' ज्यादा यथार्थवादी थी.@प्रो० विजय कुमार 'पियूष'., सहायक प्राध्यापक, जमशेदपुर कोआपरेटिव कॉलेज में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे हैं.
कोल्हानम- जादुई यथार्थवाद या कुछ और ???
जब आप इस उपन्यास को आरम्भ करते हैं तो लगता है जैसे आप आदरणीय राहुल सांकृत्यायन जी की ‘निराले हीरे’ की खोज’ फिर से पढने वाले हैं.
लेकिन, अगले ही पल ये कहानी रणेन्द्र के उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के देवता' से प्रभावित जान पड़ती है, परन्तु आप एक बार फिर से धोखा खा रहे हैं. मिथिलेश जी की ‘सन अस्सी’ जैसे ‘कासी का अस्सी’ नहीं थी, वैसे ही ‘कोल्हानम’, 'ग्लोबल गाँव के देवता' या ‘निराले हीरे की खोज’ नहीं है.
कोल्हानम, भारत के प्राचीन इतिहास की कई स्थापित मान्यताओं को चुनौती नहीं देती, बल्कि उलट देती है.
मिथिलेश के पिछले उपन्यास “सन अस्सी’ में आपको सबकुछ जाना-पहचाना लगता है, लेकिन ,‘कोल्हानम’ की कथावस्तु विल्कुल रहस्यमयी और अनजानी है जो एक अलग ही ट्रैक पर चलती हैं.
कोल्हानम कहानी ईसा पूर्व 200 की जरुर है, किन्तु, यह किताब सन 2020 में भी विश्वविद्यालयों कुछ स्वनामधन्य विद्वानों और वहाँ रिसर्च संस्कृति पर गहरी चोट करेगी.
आप इस किताब से बेहद नफरत करेंगे, या बेहद मोहब्बत. लेकिन, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आपको धर्म की राजनीतिकरण की वर्तमान प्रक्रिया की कितनी जानकारी है, या है भी नहीं!-
मिथिलेश सर की एक फोटो शेयर कर रहा हूँ. इस किताब का इन्तजार कर रहा रहा हूँ. एक अनुरोध-कवर पेज बदल दीजिये.
@ डॉ अमर राजवंशी, मालदा. प० बंगाल
अद्भुत लगा पढ़कर. हम भी इतिहास के स्टूडेंट रहे हैं पर इतनी जानकारी नहीं थी. बहुत ही अच्छा लगा पढकर. बहुत बहुत शुभकामना ! @ बालेन्दु शेखर पाठक, जमशेदपुर , झारखण्ड.
मिथिलेश जी की शैली बेहद सहज और सरल है. वे मुद्दे की बात करते हैं बेहद अलौकिक शैली में . उनमे पाठकों के साथ संवाद स्थापित करने की अद्भुत क्षमता है. कोल्हानम, बेहद अद्भुत और प्रयोगधर्मिता से भरपूर है.
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