सन् अस्सी : एक दशक का दस्तावेज़ ।

Visit us at : www. jamshedpurresearchreview.comसन् अस्सी : एक दशक का दस्तावेज़ पुस्तक समीक्षा : दिव्येंदु त्रिपाठी लेखक, वास्तु-विशेषज्ञ, सलाहकार। प्रोटो और प्राचीन इतिहास में रुचि, और प्राचीन पवित्र ग्रंथ by Divyendu Tripathy Writer ,vastu-expert ,Adviser. Interested in proto and ancient history, and ancient holy scriptures.
Ph-9263567691. -------------------------------- "सन् अस्सी "डा मिथिलेश चौबे द्वारा लिखित और बहुचर्चित उपन्यास है जोकि अस्सी के दशक वाले जमशेदपुर के सामाजिक परिवेश का एक अनुप्रस्थ-चित्र (cross sectional picture) प्रस्तुत करता है । "अनुप्रस्थ चित्र" एक जैव वैज्ञानिक शब्द है जोकि किसी कोशिका(cell) या ऊतक( tissue) के अनुप्रस्थ काट से संबंधित है जिसमें उसके एक हिस्से की अंदरूनी तस्वीर दिखलाई जाती है। यह उपन्यास भी ठीक उसी तरह से जमशेदपुर का एक अनुप्रस्थ चित्र दिखलाता है और वह चित्र अस्सी के दशक का है। तब हमारा टाटानगर बिहार का ही एक हिस्सा हुआ करता था और वह अपने बहुप्रदेशीय जनबसाव की सघनता की ओर बढ रहा था । उन अनेक प्रदेशों के लोगों में से उत्तरबिहार (आज के बिहार) से प्रब्रजन कर बस रहे लोग भी बहुत महत्वपूर्ण थे ।यह कथान्यास उनलोगों के जीवन के विविधपक्षीय मोडों और मेडो़ को रूपायित करता है । इसके कथानक का मुख्यपात्र निशिकांत भोजपूरीभाषी इलाके बक्सर का मूलनिवासी है जिसके पिता टाटा स्टील में नौकरी करते हैं। लेखक ने निशिकांत के बचपन,केशौर्य ,यौवन तथा प्रौढावस्था के चित्र इस तरह से खींचा है जिसमें जमशेदपुर का तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश अपने पूरे उभार के साथ उपस्थित हुआ है। इसमें अस्सी के दशक का परिवेश तथा बिहार से आए परिवारों का संघर्ष झलकता है। बिहार से आए लोगों के सामने अनेक चुनौतियाँ थीं, अपनी माटी से दूर होने की पीड़ा और उससे सतत् संपर्क बनाए रखने की कवायद, पृथक परिवेश में अनुकूलित होने की समस्या तथा परंपरागत मूल्यों को बचाए रखने का प्रयास। जमशेदपुर में बसा तत्कालीन उत्तर बिहार का समाज और विशेषकर भोजपुरीभाषी समाज यहाँ आकर सांस्कृतिक रूप से धीरेधीरे बदलते जाता है। स्थानीय समाजों के साथ-साथ दक्षिणभारतीय और जनजातीय परिवेश भी कहीं न कहीं उसे प्रभावित करता है तथा खुद भी प्रभावित होता है। निशिकांत की किशोरावस्था अस्सी के दशक में यौवन की ओर अग्रसर होती है। निशिकांत और उसके साथियों को केन्द्र में रखकर लेखक ने तत्कालीन मुहल्ला संस्कृति का जीवंत चित्रण किया है। किशोरावस्था में की गई नादानियों, ऊटपटांग लेकिन रोमांचक हरकतों, विद्यालयों का परिवेश तथा घरेलू वातावरण का बढिया चित्र खींचा गया है। अस्सी के अंतिम भाग में नगर में पनप रहे अपराधतंत्र की भयावहता भी इसमें दिखलाई पड़ती है। निशिकांत सुरेशनामक एक मित्र की संगति के कारण इस अपरांधतंत्र के करीब से गुजरता है और पिता के सत्परामर्श के कारण उसका हिस्सा होने से बाल-बाल बच जाता है। नवशिक्षित युवावर्ग के सामने बेरोजगारी की समस्या पहाड़ की तरह तनी नजर आती है। लम्बे समय तक लोग बेरोजगार रह जाते हैं तथा कुछ असंतोषजनक रोजगार पाते हैं। कुछ आपराधिक तंत्र का हिस्सा बन कालकवलित हो जाते हैं। 1991 के उदारीकरण के बाद रोजगार की अनिश्चितता और भी बढती जाती है। निशिकांत समय के थपेड़ों को झेलकर देर से ही सही अपना रास्ता खोजता हैं और सफलता भी पाता हैं। यह उपन्यास उनलोगों को और भी रुचिकर लगेगा जो उसदशक में जमशेदपुर में किशोर या युवा रहे होंगे। वे उस काल का स्पंदन तथा गुदगुदी सहज ही महसूस करेंगे। लेकिन वह दशक तथा परिवेश काफी हदतक झारखंड के अन्य नगरों में भी वैसा ही था जैसा कि इस उपन्यास में दर्शाया गया है। हाँ ,टाटा कंपनी की उपस्थिति तथा उसकी देन कुछ हदतक इसे अन्य नगरों के परिवेश से अलग करती थी (है)। इस आख्यान में जमशेदपुर कई रूपों में उपस्थित है। इसके विभिन्न स्थलों तथा संस्थानों का चित्र यहाँ खींचा गया है। कदमा गर्ल्स स्कूल, ब्वाएज़ स्कूल,जुबली पार्क, पायल टाकीज़,खड़काई नदी, कान्वेंट स्कूल, कापरेटिव कालेज, वोल्टाज़ बिल्डिंग, जुगसलाई आदि -आदि। उस दौर का पहनावा, बोलचाल का तरीका,नोकझोंक,इश्क का चक्कर आदि काफीकुछ। कालेज का परिवेश तथा उसमें बनते-बिगड़ते युवा, उसमें अपराध का प्रवेश आदि कथानक को जीवंत बनाते हैं।लेखक तत्कालीन उत्तर बिहार की ग्रामीण समस्याओं को भी रेखांकित किया विशेषकर भोजपूरी पृष्ठभूमिवाले इलाकों की जहाँपर रक्तरंजित गैंगवार / उग्रवाद शस्यश्यामला धरती को लाल कर देता है और किसान अपनी भूमि को छोड़कर पलायन करने को विवश होता जाता है। लेखक उपन्यास का समापन आदर्शवाद के रास्ते करता है तथा भावी पीढी के द्वारा होनेवाले सकारात्मक बदलावों के प्रति आशान्वित है। निशिकांत की पुत्री ब्यूटी इस संभावित बदलाव की वाहिका लगती है। ब्यूटी नई पीढी की प्रतिनिधि पात्र है जो समाज में नए बदलावों को लाएगी ।खड़काई तथा गंगा की सफाई का जिक्रकर पुनः अपनी जडो़ं से जुड़ाव की खुशी तथा दोनों ही माटियों का कर्ज़ अदा करने की प्रेरणा देती है । लेखक का लेखन काफी जीवंत है। हास्य का पुट बराबर बना रहता है।इसका कथानक सहजता से किसी धारावाहिक अथवा चलचित्र का स्क्रीनप्ले (पटकथा) बनने की क्षमता और पात्रता रखता है। बोलचाल की स्थानीयता और खुलापन लेखक की पारखी नजर का परिचायक है।यह उपन्यास एक समाजशास्त्रीय अध्ययन भी है जोकि काफी हदतक एक "केसस्टडी " भी लगता है। लेखक स्थान-स्थान पर तत्कालीन समय और परिवेश का विश्लेषण एक समाजविज्ञानी की तरह से करता है। परंपरागत उपन्यास-लेखन की कसौटी पर देखा जाए तो यह कथा -क्रम में और अधिक सघनता की अपेक्षा रखता है।लेकिन यह कसौटी परंपरागत है तथा" सन् अस्सी "जैसे कथान्यास नई कसौटी की तलाश रखते हैं।वैसे तो यह उपन्यास किसी परिचय की आवश्यकता नहीं रखता क्योंकि यह पहले से ही काफी लोकप्रिय रहा है ।पुस्तक मेलों में इसकी सैकडों प्रतियाँ हाथोंहाथ बिकी हैं ।इसपर कुछ लिखना बहुत ही खुशी और गौरव की बात है। यशस्वी लेखक को मेरी ओर से शुभकामनाएँ। सन् अस्सी (उपन्यास) (2016) डाॅ मिथिलेश चौबे ज्ञानज्योति एजुकेशनल एंड रिसर्च फाउंडेशन। ₹ 100

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